इस वक्त महाराष्ट्र की पूरी सियासत अगर किसी एक व्यक्ति के ऊपर टिकी है तो वो हैं एकनाथ शिंदे. शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे इस वक्त काफी ज्यादा चर्चा में हैं. चर्चा का कारण है कि उनका एक फैसला अब महाराष्ट्र की सरकार गिरा सकता है.
सभी बागी विधायकों ने हर फैसला शिंदे के ऊपर छोड़ रखा है और सभी का कहना है कि जो फैसला शिंदे लेंगे वो सभी बागियों का मान्य होगा. ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि एकनाथ शिंदे आखिर हैं कौन और कैसे वो अचानक महाराष्ट्र की राजनीति के इतने अहम नेता बन गए.
ऐसा बीता शिंदे का बचपन
58 साल के एकनाथ शिंदे का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था और उनका बचपन काफी गरीबी में बीता. वो जब 16 साल के थे, तब उन्होंने अपने परिवार की मदद करने के लिए काफी समय तक ऑटो रिक्शा भी चलाया. इसके अलावा उन्होंने पैसे कमाने के लिए शराब की एक फैक्ट्री में भी काफी समय तक काम किया.
कहा यह भी जाता है कि 1980 के दशक में वो बाल ठाकरे से काफी प्रभावित हुए और इसके बाद उन्होंने शिवसेना पार्टी Join कर ली. उस समय महाराष्ट्र में शिवसेना अकेली ऐसी पार्टी थी, जो हिन्दुत्व के मुद्दे पर लोगों के बीच जाती थी. इस मामले में बीजेपी भी उससे काफी पीछे थी.
एकनाथ शिंदे 2004 में पहली बार विधायक बने थे और बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद उन्हें शिवसेना के सबसे बड़े नेता के तौर पर देखा जाता था. हालांकि पिछले दो वर्षों में उनका ये कद घट गया और पार्टी में उनसे ज्यादा उद्धव ठाकरे के पुत्र और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री आदित्य ठाकरे को ज्यादा प्राथमिकता दी जाने लगी, जिससे एकनाथ शिंदे खफा हो गए. असल में एकनाथ शिंदे पार्टी में सिर्फ नाम के लिए रह गए थे और उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था.
क्या हिंदुत्व के नाम पर बनी थी शिवसेना?
यहां एक बात आपको ये भी समझनी होगी कि शिवसेना की स्थापना वर्ष 1966 में बाल ठाकरे ने की थी और उस समय इस पार्टी की स्थापना का मकसद था सरकारी नौकरियों में मराठी समुदाय के लोगों को प्राथमिकता दिलावाना. महाराष्ट्र में मराठी भाषा का प्रचार प्रसार करना और मराठी संस्कृति को बढ़ावा देना.
हिन्दुत्व की विचारधारा को शिवसेना ने 1980 के दशक में अपनाया. यानी शिवसेना की स्थापना के समय हिन्दुत्व बड़ा मुद्दा नहीं था. लेकिन 1980 के दशक में बाल ठाकरे हिन्दुत्व और क्षेत्रवाद को मिला दिया और महाराष्ट्र में हिन्दुत्व के सबसे बड़े ब्रैंड ऐम्बेस्डर बन गए. इसके अलावा बाल ठाकरे ने जीवित रहते हुए सरकार में कभी कोई पद हासिल नहीं किया और ना ही अपने परिवार से किसी को सरकार का हिस्सा बनने दिया.
लेकिन वर्ष 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना एक परिवार की पार्टी बन गई और उद्धव ठाकरे 2019 में कांग्रेस और NCP के साथ गठबंधन करके राज्य के मुख्यमंत्री बन गए और अपने बेटे आदित्य ठाकरे को भी सरकार में मंत्री बना दिया और ये शिवसेना के पतन का सबसे बड़ा कारण है.
शिंदे को राजनीति में कौन लाया?
यहां गौर करने वाली बात ये भी है कि शिवसेना में जाने को लेकर शिंदे को प्रेरणा बाल ठाकरे से नहीं बल्कि तब के कद्दावर नेता आनंद दीघे से मिली. आनंद दीघे से ही प्रभावित होकर उन्होंने शिवसेना ज्वॉइन कर ली. पहले शिवसेना के शाखा प्रमुख और फिर ठाणे म्युनिसिपल के कॉर्पोरेटर चुने गए.
लेकिन एक दौर उनके निजी जीवन में ऐसा आया कि उस वक्त वो बुरी तरह टूट गए. वो इस दौर को अपने जीवन का काला दौर बताते हैं. यह समय था जब उनका पूरा परिवार बिखर गया था. उनके बेटा-बेटी की मौत के बाद तो शिंदे ने राजनीति छोड़ने तक का फैसला कर लिया था. लेकिन इस बुरे दौर में भी उन्हें आनंद दीघे ने ही सही राह दिखाई और राजनीति में सक्रिय रहने को कहा.
जब शिंदे ने खोया अपना परिवार
बता दें कि 2 जून 2000 को एकनाथ शिंदे ने अपने 11 साल के बेटे दीपेश और 7 साल की बेटी शुभदा को खो दिया था. वो अपने बच्चों के साथ सतारा गए थे. बोटिंग करते हुए एक्सीडेंट हुआ और शिंदे के दोनों बच्चे उनकी आंखो के सामने डूब गए. उस वक्त शिंदे का तीसरा बच्चा श्रीकांत सिर्फ 14 साल का था.
दीघे से घबराते थे बाला साहब ठाकरे
आप आनंद दीघे के राजनीतिक कद का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि महाराष्ट्र में बाला साहब ठाकरे को भी लगने लगा था कि कहीं वे पार्टी से बड़े नेता न बन जाएं. ठाणे में तो आनंद दीघे के सामने किसी राजनीतिक हस्ती की कोई बिसात ही नहीं थी.
जब शिंदे को मिली अपने गुरू की राजनीतिक विरासत
लेकिन फिर कुछ समय बाद ही 26 अगस्त 2001 को एक हादसे में शिंदे के गुरू आनंद दीघे की भी अचानक मौत हो गई उनकी मौत को आज भी कई लोग हत्या मानते हैं. आनंद दीघे की मौत के बाद शिवसेना को ठाणे क्षेत्र में खालीपन आ गया और शिवसेना का वर्चस्व कम होने लगा.
लेकिन समय रहते पार्टी ने इसकी भरपाई करने की योजना बनाई और शिंदे को वहां की कमान सौंप दी. शिंदे शुरुआत से ही आनंद दीघे के साथ जुड़े हुए थे इसलिए वहां कि जनता ने शिंदे पर भरोसा जताया और पार्टी का परचम लहाराता रहा.
जनता के सेवक बने शिंदे
शिंदे के करीबी कहते हैं कि वो भी अपने गुरू आनंद दीघे की ही तरह जनता के सेवक रहे. साल 2004 में वो पहली बार विधायक बने. इसके बाद 2009, 20014 और 2019 विधानसभा चुनाव में भी जनता ने उन्हें ही जिताया. मंत्री पद पर रहते हुए शिंदे के पास हमेशा अहम विभाग रहे. साल 2014 में फडणवीस सरकार में वो PWD मंत्री रहे.
इसके बाद 2019 में शिंदे को सार्वजनिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और नगर विकास मंत्रालय का जिम्मा मिला. महाराष्ट्र में आमतौर पर CM यह विभाग अपने पास रखते हैं.
पार्टी में क्यों हुई बगावत?
बीते दो सालों में शिंदे की नाराजगी की बड़ी वजह यह भी रही कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने न तो कोई बड़ी बैठक की और न ही विधायकों से ज्यादा मिले. कहा ये भी गया कि सीएम भले ही शिवसेना से हैं लेकिन सरकार का रिमोट NCP के शरद पवार के हाथ में ही रहता है.
ऐसे में ठाकरे की जगह शिंदे विधायकों से लगातार मिलते रहे और उनकी समस्याएं सुलझाते रहे. यहीं अंदरखाने उन्होंने शिवसेना के विधायकों का भरोसा जीत लिया और बगावत के लिए तैयार कर लिया.
- यह भी पढ़े :
- सिलिंडर में रिसाव से लगी आग, मां-पुत्र समेत 3 की जलकर मौत
- Pilibhit News: पीलीभीत में भीषण सड़क हादसा, 10 लोगों की दर्दनाक मौत
- Pilibhit News: प्रेमिका ने किया ऐसा काम कि मंडप से सीधे थाने पहुंच गया दूल्हा