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शुभ विचार: अनुचित कर्म हो जाने पर दोष स्वीकार करना साधु पुरुष का काम है।

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आग से कोई आग को नहीं बुझा सकता। जिस प्रकार आग बुझाने के लिए पानी की आवश्यकता है, उसी प्रकार दोष दूर करने के लिए सत्य की आवश्यकता है। अनुचित कर्म करके दोष स्वीकार करना साधु पुरुष का काम है। जो लोग दोष छिपाते हैं उन्हें चोर समझना चाहिए। जो अपना दोष जितना ही छिपाने की चेष्टा करता है, उतना ही वह अपने को और दोषी बनाता है। अपने दोषों को छिपाकर कोई साधु नहीं कहला सकता। साधु तभी कहला सकता है, जब वह साफ-साफ अपना दोष प्रकट कर दे और अपने किए हुए दोषों पर पश्चाताप करे। दोष छिपाने के लिए झूठ बोलना, एक दोष के रहते दूसरा दोष करने के बराबर है। दोष से दोष का उद्धार कभी नहीं हो सकता। जिनमें मानसिक बल नहीं है, वे ही अपना दोष स्वीकार करने में थरथराते हैं। वे यह नहीं सोचते कि अपराध स्वीकार करना हृदय की दुर्बलता न होकर हृदय का महत्व है। अपना दोष प्रकट कर देने ही से मनुष्य निर्दोष होता है, उसके मन को शांति प्राप्त होती है, चरित्र निर्मल होता है और अयश के बदले सुयश प्राप्त होता है। हमें भली-भांति याद रखना चाहिए कि एक झूठ के छिपाने के लिए दूसरे झूठ की आवश्यकता पड़ती है, अर्थात जहाँ अपने दोष को छिपाने के लिए मुँह से एक बार झूठ निकली, वहाँ दूसरी झूठ आपसे आप आ खड़ी होती है और यही वस्तु मनुष्य के मानसिक तथा पारलौकिक पतन का कारण होती है। जिस प्रकार पर-दोष-दर्शन बुरा है, उसी प्रकार अपने दोषों का छुपाना भी बुरा है।

  • अखंड ज्योति जून 1945 पृष्ठ 17
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