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शुभ विचार: साधना से सिद्धि की प्राप्ति

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आत्म ज्ञान सबसे बड़ी उपलब्धि

व्यक्ति स्वयं क्या है? जीवन का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है? जीवन के साथ जुड़ी साधना से सिद्धि की प्राप्ति विभूतियों का सही उपयोग क्या है? इन प्रश्नों को उपेक्षा के गर्त में डाल देने से एक प्रकार की आत्म−विस्मृति छाई रहती है। अन्तःकरण मूर्च्छित स्थिति में जा पहुँचता है और जीवन नीति का गम्भीर निर्धारण हो नहीं पाता। इन्द्रियों की उत्तेजना ही प्रेरणा बनकर रह जाती है। प्रचलित ढर्रे का अनुकरण ही स्वभाव बन जाता है। अहंता की तृप्ति के इर्द−गिर्द ही तथाकथित प्रगति कामना चक्कर काटती रहती है। अन्य कीट−पतंगों की तरह नर−पशु भी पेट और प्रजनन के लिए किसी प्रकार जीवित रहता है मौत के दिन पूरे करता है। कटी पतंग और पेड़ से टूटे पत्ते हवा के झोंके के साथ दिशाविहीन स्थिति में जिधर−तिधर उड़ते और छितराते रहते हैं। हमारे जीवन भी इसी प्रकार जीने के लिए जीते रहते हैं। कोई उच्च उद्देश्य सामने न रहने और उस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रयास न वन पड़ने पर जीवन का आनन्द मिल नहीं पाता। ऐसे ही रोते−कलपते, हारी−थकी जिन्दगी कट जाती है। बहुत बार तो अधिक सुख की आतुरता में नीति, मर्यादा, औचित्य और विवेक को भी उठाकर ताक में रख दिया जाता है और ऐसा मार्ग पकड़ा जाता है, जिसमें न केवल अपना वरन् सम्बद्ध व्यक्तियों और पूरे समाज का भी अहित होता है।
बाह्य−ज्ञान की तरह अन्तःज्ञान भी आवश्यक है। सुख−साधनों की अभिवृद्धि की तरह उपभोक्ता की विवेक दृष्टि का प्रखर होना भी आवश्यक है, अन्यथा सुख−साधनों का दुरुपयोग ही बन पड़ेगा और उससे विपन्नताएँ एवं समस्याएँ ही उत्पन्न होंगी। आत्म−ज्ञान की आवश्यकता भौतिक ज्ञान से भी अधिक है। अच्छी मोटर खरीदने के साथ−साथ अच्छे मोटर ड्राइवर की भी व्यवस्था करनी चाहिए अन्यथा पैदल चलने से भी अधिक कठिनाई अनाड़ी द्वारा चलाई जा रही मोटर में बैठने से उत्पन्न हो सकती है।
आत्म−ज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके तो सबसे पहले यह विचार करना होगा कि हम हैं क्या ? और आखिर क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर आत्मवेत्ता महामनीषियों ने अपने गम्भीर चिन्तन से जो निष्कर्ष निकाले हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उन्हें भारत को अपनाया था और उस आधार पर सर्वतोमुखी उत्कर्ष का लाभ उठाया था।
अणु क्या है? सुविस्तृत पदार्थ वैभव का एक छोटा सा घटक। आत्मा क्या है? परमात्मा सत्ता का एक छोटा−सा अंश। अणु की अपनी स्वतन्त्र सत्ता लगती भर है, पर जिस ऊर्जा आवेश के कारण उसका अस्तित्व बना है तथा क्रिया−कलाप चल रहा है, वह व्यापक ऊर्जा तत्व से भिन्न नहीं है। एक ही सूर्य की अनन्त किरणें दिग्−दिगन्त में फैली रहती हैं। एक ही समुद्र में अनेकानेक लहरें उठती रहती हैं। देखने में यह किरणें और लहरें स्वतन्त्र और एक दूसरे से भिन्न हैं। तो भी थोड़ी गम्भीर दृष्टि का उपयोग करने पर यह जाना जा सकता है कि यह भिन्नता कृत्रिम और एकता वास्तविक है। अलग−अलग बर्तनों के बीच रहने वाले आकाश में अपनी सीमा में बँधे होने के कारण अलग−अलग लगते हैं तो भी उनका अस्तित्व निखिल आकाशीय सत्ता से भिन्न नहीं है। पानी में अनेकों बुलबुले उठते और विलीन होते रहते हैं। बहती धारा में भँवर पड़ते हैं, दीखने में बुलबुले और भँवर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट कर रहे होते हैं, पर यथार्थ में वे प्रवाहमान जलधारा की सामयिक हलचल मात्र हैं। जीवात्मा की सत्ता स्वतंत्र दीखती भर है, पर न केवल वह उसका अस्तित्व एवं स्वरूप भी व्यापक चेतना का एक अंश मात्र है
अध्यात्मवाद के इस एकता सिद्धान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि हम विश्व चेतना के एक अंश मात्र हैं। समष्टि ही आधारभूत सत्ता है, हम उसकी छोटी चिनगारी भर हैं। एकता को शाश्वत समझा जाय पृथकता को कृत्रिम। सब में अपने को और अपने को सब में समाया हुआ, देखा, समझा और माना जाय। सबके हित में अपना हित सोचा जाय। सबके दुःख में अपना दुःख माना जाय− सबके सुख में अपना सुख। सबका उत्थान अपना उत्थान, सबका पतन अपना पतन। यह मानकर चलने से सीमित परिधि में खुशी होने की क्षुद्रता घटती है और व्यापक क्षेत्र में सुख सम्वर्धन की योजना सामने आती है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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